ओजस्वी वाणी (5)

by | ओजस्वी वाणी | 0 comments

कल,एक साधक ने प्रश्न किया था, कि “क्या गुरुकृपा से प्रारब्ध बदल सकता है..? किसी मनुष्य को भाग्यानुसार जीवन में जो उपलब्ध नहीं है… क्या गुरु के आशीर्वाद से उसकी प्राप्ति संभव है ?”

तो…इसका उत्तर “नहीं” भी है….. और “हाँ” भी…. अब, एक प्रश्न के दो उत्तर कैसे !! यह आगे स्पष्ट होगा..!!
मित्रों, आपको यह बताया था कि गुरु कोई व्यक्ति नहीं… वह तो आदिगुरु शिव के द्वारा प्रवाहित गुरुतत्व का संवाहक है…. जैसे चुंबक के सम्पर्क में रहने से लोहे के टुकड़े में भी कुछ चुम्बकीय गुण आ जाते हैं… वैसा ही देहधारी गुरु के साथ भी है… शिवत्व का माध्यम होने से उसमें भी शिवत्व आ जाता है….. जिसका लाभ चाहे या अनचाहे सम्पर्क में आने वाले साधक को प्राप्त होता ही है… शर्त है… कि वह मनुष्य देहधारी गुरु वास्तव में गुरुतत्व का वाहक होने का अधिकारी हो… आडंबर से रहित हो…. छल-कपट से विहीन हो…. अहंकार शून्य हो… सरल-सहज व्यक्तित्व का स्वामी हो….!!!

आपने गुरु गोरखनाथ जी, द्वारा किसी निःसंतान को आशीर्वाद का उदाहरण दिया.. यह कठिन तो है… किन्तु चलो,कोई मिल भी गया ऐसा गुरु… तो दूसरी शर्त भी है…कि उस गुरुकृपा रूपी शिवत्व को ग्रहण करने की योग्यता उस शिष्य में है क्या…?

क्या उस मात्रा में विश्वास है….?.. क्या पूर्ण समर्पण का भाव है…?

यानि यदि दोनों तरफ से लाइन clear है… तो कोई संशय नहीं…. गुरुकृपा और आशीर्वाद से कुछ भी बदल सकता है…. यह तथ्य सत्य है…!! और यदि इसमें कहीं भी किसी एक तरफ से कोई कमी है… तो यह संभव नहीं । अब इस प्रकार ‘है भी’ और ‘नहीं भी’ सिद्ध हुए… किन्तु… इसका एक अन्य अपवाद भी है…. जो है तो, दुर्लभ किन्तु सत्य है… वो है, एकलव्य जैसी गुरुभक्ति… जिसमे शिष्य, श्रद्धा और समर्पण भाव के द्वारा एक मूर्ति से भी वह ज्ञान प्राप्त कर लेता है….यहाँ देहधारी गुरु की इच्छा-अनिच्छा का इतना प्रभाव नहीं रहता…. क्योंकि साधक अपनी साधना के बल पर सीधे आदिगुरु शिव की कृपा प्राप्त कर लेता है.. और गुरुतत्व के संपर्क में आ जाता है !!

वास्तव में गुरुकृपा और ईश्वरीय कृपा में कोई विशेष अंतर् नहीं है… तभी कहा गया…

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम: !!

“गुरुकृपा”…ऐसा विषय है… इसपर … जितना भी लिखा जाए उतना ही कम है…. जितना पढ़ा जाए कम है… जितना सुना जाए… कम है… जितना बखान किया जाए…कम ही है..तो एक सुंदर दोहे से अपनी वाणी को विराम देता हूँ….

“बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि, महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर”

इसका भावार्थ है… “हम उन गुरुवर के चरण कमलों की वंदना करते हैं… जो कृपा के सागर हैं… और मानव के रूप में, साक्षात् ईश्वर हैं…. जिनके वचन सूर्य की किरणों के समान, मोहरूपी अंधकार को नष्ट करने का सामर्थ्य रखते हैं ।

।। कल्याणमस्तु ।।
आचार्य ओजस्वी