ओजस्वी वाणी (4)

by | ओजस्वी वाणी | 0 comments

एक साधक ने आग्रह किया है कि, पिछली वार्ता के अंतिम भाग को विस्तार से समझाएं, “जो आंतरिक यात्रा का पथिक नहीं है,वह जो कर रहा है मात्र अपनी संतुष्टि के लिए…” उसमें आगे उद्धरण में स्पष्ट भी किया है, कि सही दिशा में कम चलना, एक सीमित दायरे में अधिक चलने से बेहतर है । इसको स्पष्ट करते हुए थोड़ा विस्तार देते हैं ।

जैसे एक हमारा भौतिक शरीर है, जिसे हम देख और अनुभव कर पाते हैं, इसके साथ हमारे दो शरीर और भी है, “सूक्ष्म शरीर” और “कारण शरीर” । हम अपना समस्त जीवन भौतिक शरीर की सुख-सुविधा और देखभाल में व्यतीत करते हैं । आंतरिक स्तर पर जीवन जीने की कला, अधिकतर लोग जीवन भर नहीं सीख पाते,और न ही सीखना चाहते हैं । या यूं कहिए कि वो “आंतरिक यात्रा के पथिक” कभी नहीं बन पाते । क्योंकि वह बाहरी क्रियाओं को ही आध्यात्मिक कृत्य समझते हुए संतुष्ट हैं । जैसे मन्दिर जाना, घण्टी-शंख बजाना, फूल-प्रसाद चढ़ाना, चालीसा पढ़ना या आरती गाना इत्यादि । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि इन सबका कोई महत्व नहीं, किन्तु यदि यह सब सामान्यतः भाव विहीन होकर मात्र क्रिया रूप में ही की जाती हैं । दैनिक रटी-रटाई आरती में कबसे दुनिया दोहरा रही है कि “भक्त जनों के संकट पल में दूर करें” संकट पल में तो क्या वर्षों भी दूर नहीं होते…. तो कमी तो है कहीं न कहीं….!!…भाव नहीं है.. सब कुछ यंत्रवत हो रहा है.. भावशून्य…!!!

अरे भाई कब तक यह बाहर घण्टी बजाओगे…,भीतर जो घण्टे-घड़ियाल बज रहे हैं.. वह भी तो सुनने का प्रयास करो… बाहर की शंखध्वनि ने तो वातावरण को शुद्ध इसलिए किया था.. कि अब आप भीतर के अनहद नाद पर ध्यान दे सको…., बाहर के दीपक के साथ भीतर की ज्योति भी तो प्रकाशित करो…!! कभी, अपने मन-मन्दिर के गर्भगृह में प्रविष्ट होने का प्रयास तो करो… वो आपकी प्रतीक्षा में कबसे बैठा हुआ है… जिसकी पाषाण प्रतिमा के दर्शनों के लिए मन्दिर के पुजारियों के धक्के खाते फिरते हो… उन्हें तो स्वयं कभी दर्शन नहीं हुए….!! वो धक्के देने वाले तो स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि चलो आगे… बाकि कार्य स्वयं करो…! “वास्तव में जहां भाव नहीं है, वहां कुछ भी नहीं है ।”

अब यह जो भीतर की दौलत है न… यह भी सबको नहीं मिलती… “दीन को दीनता त्यागकर मिलती है.. और संपन्न को वैभव त्यागकर…”.. किसीको… “सर्वस्व त्यागकर.. भी यदि मिल जाए, तो समझो सौदा सस्ता हो गया…!!”

तभी कबीरदास जी ने कहा कि… “इस घट अंदर बाग बगीचे, इसी में नौलख तारा ; इस घट अंदर अनहद गरजे, इसीमे उठत फुहारा”

कहते भी है, कि
“जो ब्रह्माण्डे,… सोई पिंडे”… यानि जो कुछ ब्रह्मांड में है, वह सब इस पिंड (शरीर) में है ! ….यही “अहं ब्रह्मस्मि”…के अनुभव की प्रयोगशाला है… यही “शिवोsहम” का उद्घोष पथ है…. यही अंतर की यात्रा है, और इस मार्ग का यात्री ही “आंतरिक मार्ग का पथिक है”

विषय तो ऐसा है कि इसपर कितना भी लिखा जाए,… कितना ही पढ़ा जाए…!!.. इसका कोई अंत नहीं ।शेष फ़िर कभी…..

कल्याणमस्तु !!