ओजस्वी वाणी (1)

by | ओजस्वी वाणी | 0 comments

अध्यात्म का विषय अथाह सागर की भांति हैं, जिसके ओर-छोर का कुछ अनुमान लगाना कठिन है । “हरि अनंत हरि कथा अनंता” । आध्यत्मिक लेखन आदिकाल से होता रहा है, जिन्हें रुचि है उनकी पिपासा शांत नहीं होती और ऐसे भी लोग हैं, जो ऐसी वाणी से परेशान हो जाते हैं, उनका मन दूर भागता है…”तुलसी पिछले पाप सों, हरि चर्चा नाहीं सुहाए,जैसे ज्वर के ताप में भूख विदा हो जाए” जैसे बुखार में भूख नहीं लगती,ठीक वैसे ही हमारे पिछले पापों के प्रभाव से ईश्वरीय विषयों में हमें अरुचि होने लगती है । जैसा कक्षा में बताया था, कि हम पूर्वजन्मों के जो मन-बुद्धि-सँस्कार लेकर आए हैं, उनके आधार पर ही यह जीवन हमें प्राप्त हुआ है । अब स्वयं से प्रश्न करें कि यह मनुष्य जीवन क्यों मिला है ? इतनी योनियों में से यह सर्वश्रेष्ठ योनि ही क्यों ? तो मित्रों जैसे हमारे माता-पिता को हमसे कई उम्मीदें होती है कि हमारी संतान समाज मे उत्तम स्थित को प्राप्त करे । परमपिता परमात्मा को भी यह उम्मीद है कि हम अपने पूर्वस्तर से उत्तम सौपान पर पदार्पण कर सकें । ऐसा इसलिए क्योंकि मानव योनि ही कर्मयोनि है, और पशु योनि भोगयोनि है । जैसे हिंसक पशु को हिंसा का पाप नहीं लगता,गंदगी में पनपने वाले जीवों को अपवित्रता

का बोध नहीं होता, अकारण भौंकने वाला कुत्ता असभ्य नहीं माना जाता, कुछ जीव तो अपनी संतान को जन्म देते ही उनका भक्षण कर लेते हैं, जो घृणित नहीं स्वाभाविक है । यह सब भोगयोनि मे हैं, जो प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है, उसी में विचरण कर रहे हैं । मानव में क्या विशेष है…. वह है मानव मस्तिष्क, जिसमें निर्णय के लिए विवेक है… यानि उचित-अनुचित का ज्ञान, जिसमें ज्ञानार्जन की जिज्ञासा है… जिसमें अपनी स्थिति को उत्तम बनाने की महत्वाकांक्षा है… वरना…. भोजन, भय, निद्रा, मैथुन तो पशुओं के समान ही है । आप देखेंगे कि समाज में अधिकतर लोग इस जीवन को ऐसे ही बिता रहे हैं…। अस्तु ! हम सभी भाग्यवान हैं कि हममें कुछ जानने और समझने की इच्छा है । अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की तड़प है… जिज्ञासा और ज्ञान पिपासा है । और जब यह विशेष गुण ईश्वर ने हमें दिए हैं,तो हम उसकी इच्छानुसार श्रेष्ठ मानव बनें… इस जन्म में भी उत्तम ऐश्वर्य भोगें और मृत्यु के पश्चात भी उत्तम स्थिति को प्राप्त करें । और यह हमारी संकल्प शक्ति पर निर्भर करता है । वेद कहता है… “तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु” अर्थात “मेरा मन शुभ संकल्पों से युक्त हो” । कल्याणमस्तु।। आचार्य ओजस्वी