प्रभु ने “रहस्य यात्रा” के आरम्भ से ही सबकी परीक्षा शुरू कर दी थी, लेकिन सभी के हौसले बुलंद रहे और इस अद्भुत यात्रा का आनन्द लिया। इसके बाद मानो पूरी यात्रा का संचालन दैव्य शक्ति के दुवारा निश्चित किया गया था, आने -जाने ,खाने, रहने, बैठने, उठने का सभी कार्य मानो उसने अपने हाथों में ले लिया हो । सब व्यवस्था आश्चर्यजनक रूप से उत्तम होती गई ।
यात्रा का शुभारंभ एक ऐतिहासिक शिवमंदिर से किया गया था, जहाँ शिवलिंग स्थापना स्वयं द्रोणाचार्य जी के दुवारा की गई थी, वैशाख में शिवलिंग का आकार समान्य से बढ़ जाता है, इस स्थान की अद्भुत कथा वहाँ, धूने पर आसीन एक वयोवृद्ध बाबा ने सभी साधकों को सुनाई।
एक सिद्धपीठ पर बहुत से मित्रो को साधना के दौरान अद्भुत अनुभव हुआ। वहाँ महाआरती में सम्मिलित होने का मौका मिला ! एक अन्य सिद्धपीठ पर साक्षात मां का आशीर्वाद सभी साधकों को प्राप्त हुआ, गुरु जी ने हमें साधना भी करवाई जिसके बारे में साधको ने अपने अनुभव शेयर किए.
एक अन्य स्थान पर, एक अभूतपूर्व साधक जो कि वहाँ के महंत भी थे उनका सानिध्य और चर्चा में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । “रहस्य यात्रा” में हमें तंत्रोक्त महाविद्या हवन में शामिल होने का भी मौका मिला जिसके बारे में बताना चाहता हूं इस प्रकार का हवन मैंने आज तक नही देखा । मंत्र उच्चारण, लय, विधि और ऊर्जा का ऐसा वेग नही देखा। हवन की अग्नि मानो हमे आशीर्वाद देने के लिए हमारी तरफ आ रही हो जितने पीछे होते थे अग्नि उतनी ही वेग से बढ़ती जाती थी। इसका और वर्णन करना असंभव है।
पूरी यात्रा में गुरू जी के द्वारा ज्ञान की गंगा बहती रही….बस हो या रेल, चल रहे हों या विश्राम कर रहे हों…. हर समय कुछ न कुछ मिलता रहा…..रोज रात के 12:00- 1:00 बजे तक चर्चा होती रही थी।
जय जगदम्बा-जय जय माँ काली,,,जय महाकाल,,,,जय कालभैरव
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