पिछली चर्चा में प्रश्न का जो भाग रह गया था,उसे आगे बढ़ाते हैं….
“क्या मनुष्य में आध्यात्मिक रुचि कर्मानुसार होती है ?
उत्तर है.. “जी हां”
“बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रँथहि गावा”
हम मानव योनि में आए यह भी कर्मों की बात ही तो है….क्योंकि यही मार्ग है,.. आवागमन से मुक्त होने का.. तो कम से कम हमारे मनुष्य बनने योग्य कर्म तो होंगे ही… यह संतोषजनक बात है ।
अब एक नियम है कि प्रत्येक अंश अपने अंशी की ओर आकृष्ट अवश्य होता है… जैसे अग्नि सूर्य का अंश है… तो उसकी लपटें ऊपर की ओर ही उठती हैं.. जल समुद्र का अंश है तो सदैव नीचे की ओर ही बहता है… वायु आकाश का अंश है, तो उसे जहां आकाश (रिक्त स्थान) मिलता है, वहीं विचरण करने लगती हैं । धूल के कण पृथ्वी का अंश हैं, तो हवा उन्हें कितना ही ऊपर उड़ाए,अंततः नीचे की ही आकर बैठते हैं । ठीक इसी प्रकार हम जीवात्मा उस परमपिता परमात्मा का अंश हैं, तो स्वाभाविक रुप से हमारे भीतर भी उसे प्राप्त करने की इच्छा या लालसा होनी ही चाहिए…
किन्तु ऐसा सबके साथ नहीं होता ।ऐसा क्यों ?
उपरोक्त नियम यहां कार्य क्यों नहीं करता ???
तो भाई, इसलिए नहीं करता क्योंकि यह नियम आत्मा पर लागू होता है, शरीर पर नहीं… और हम स्वयं को शरीर समझे बैठे हैं । अपने आत्मस्वरूप को प्राप्त करने के मार्ग में ही… ईश्वर से नैकट्य की अनुभति आरम्भ होती है ।
तो जिस व्यक्ति में आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने की तड़प जिस मात्रा में है, वह उसके पूर्व कर्मों के फलस्वरूप ही है ।क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है,आप इस मार्ग में जहां तक पहले पहुंच चुके थे, वहाँ से आगे की यात्रा करने का अवसर तो आपको मिलना चाहिए । तो आपको वैसा ही अवसर, वैसा ही परिवेश, वैसी मानसिक वृत्ति उपलब्ध होती है, जिससे उससे आगे की यात्रा में आप अग्रसर हो सकें ।
इसिलए, यह धर्म-कर्म,पूजा- पाठ, जप-तप, दान-पुण्य सबके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता । ऐसा संभव भी नहीं और सृष्टि के लिए उचित भी नहीं … ऐसा क्यों है …? ऐसा इसलिए है, कि सृष्टि के संचालन मे दो ऊर्जाएं कार्य करती हैं, पॉजिटिव और नेगेटिव ऊर्जा,दोनों ही समान रूप से आवश्यक हैं । यदि सभी मनुष्य नकारात्मक सोच रखने वाले यानि नास्तिक हो जाएं तो भी यह सृष्टि समाप्त हो जाएगी और यदि सभी सकारात्मक सोच रखने लगे अथवा आस्तिक बन जाएं, तो भी इस सृष्टि का अंत हो जाएगा । दोनों ही महत्वपूर्ण है । यहाँ आपको लग सकता है, कि नास्तिक तो बहुत कम हैं । अधिकतर लोग तो ईश्वर में आस्था रखते ही हैं, किसी न किसी रूप में… जी नहीं, बाहरी दिखावे वालों को इस श्रेणी में गिनने की भूल मत करिए, जो आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर नहीं है, जो आंतरिक यात्रा का पथिक नहीं है, वह जो भी कर रहा है, वह मात्र उसकी स्वयं की सन्तुष्टि के लिए है । कोई दिन भर एक मैदान में चक्कर लगाता रहे , और 40 मील चले.. पर उसी मैदान में है कहीं पहुंचा नहीं.. दूसरा उससे कम यानि 10 मील ही चला किन्तु एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ता गया… वह कहीं तो पहुंचेगा, बस यही अंतर है । जो आत्मोत्सर्ग के मार्ग पर हैं, वह सभी बधाई के पात्र हैं ।
कल्याणमस्तु !!
आचार्य ओजस्वी
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