एक साधक का कहना है, कि जब किसीसे आध्यात्मिक चर्चा करो तो वह मज़ाक़ बनाता है, कहता है कि सब छोड़कर बाबाजी बनना है, क्या ?
तो क्या किसी नास्तिक से यह चर्चा उचित है क्या ?
वास्तव में जब हम किसी क्षेत्र में गतिशील होते हैं, तो स्वाभाविक ही है, कि वह विषय हमारी चर्चा में झलकेगा । भोजन पकाने का शौक रखने वाली गृहणी, किसी के घर कोई व्यंजन चखकर अवश्य उसकी Recepie जानना चाहेगी, तो उसे बनाने वाली भी उतने ही उत्साह से उसकी निर्माण विधि बताएगी । यानि जब दो व्यक्तियों की एक रुचि हो तो विषय पर चर्चा मे दोनों को आनंद आएगा । लेकिन ,यदि यही बात उनके पति से पूछी जाए, जो पाक कला से अनभिज्ञ हैं, तो वह क्या प्रतिक्रिया देंगे… आप अनुमान लगा सकते हैं । तो अध्यात्म भी आपका निजी विषय है इसकी चर्चा में वही आपके अनुकूल बात करेगा जिसके लिए यह रोचक और जिज्ञासा पूर्ण होगा । वरना तो वह आपसे वही कहेगा कि “सब कुछ छोड़कर बाबाजी बनना है क्या ?” यह एक स्वाभाविक सामाजिक प्रतिक्रिया है, जो भ्रामक है ।
बाबाजी बनने की तो कोई बात ही नहीं है । गुरु-ईष्ट पद्धति की तो विशेषता ही यही है कि एक सामान्य गृहस्थ भी साधना मार्ग में उन्नति कर सकता है, सभी सामाजिक क्रिया कलापों में भाग ले सकता हैं । वास्तव में मध्यम मार्ग चुनना सहज होता है । अतिवादी मार्ग कठिन भी है, और असफलता की संभावना भी अधिक है ।
“कहते हैं मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा” कपड़े बदलने से, घर त्यागने से कुछ नहीं होता । दाढ़ी बढ़ाना, लंबे बाल रखना भी व्यर्थ है, यदि भीतर का स्वरूप नही बदला । आप Clean Shaved रहकर भी धार्मिक हो सकते हैं और दाढ़ी रखकर भी ढोंग कर सकते हैं
आप जीन्स पहनकर भी आध्यात्मिक रुचि रख सकते हैं, कहीं कोई बाधा नहीं है, साधना के समय हल्के वस्त्र पहनना तो आपकी सुविधा के लिए है, तब हल्के पहन लीजिए ।
“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर, कर का मनका छाड़ि के, मन का मनका फेर”
(इसका दोहे का अर्थ आप सभी जानते होंगे)
कई साधक पूछते हैं कि स्त्री संसर्ग का परहेज़ है साधना में ? मेरा उत्तर होता है, “नहीं” । क्योंकि यह गृहस्थ धर्म का अंग है । दूसरे प्रतिबंध लग गया तो शायद वहीं चिंतन बना रहेगा मन में, तो क्या खाक़ साधना होगी ? उससे बेहतर तो जैसे भोजन करके तृप्त हुए वैसे ही गृहस्थ संबंध बनाकर तृप्त हो, और शांति से साधना में मन लगाए । साधना के प्रभाव से सकारात्मकता बढ़ेगी तो संयम का भाव स्वयं जागृत होगा । हज़ारों साधु बने हुए लोग ऐसे हैं, जो भोगों में लिप्त होने के अवसर ढूंढते हैं । तो ऐसे आडम्बर पूर्ण जीवन से तो तौबा करिए । देवत्व के मार्ग पर जाने के लिए, मानवीय गुणों का सामना तो करना होगा । शहर की गाड़ी पकड़नी है, तो स्टेशन तक पहुंचने के लिए गांव की पगडंडियों और उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरना तो होगा ही । पूर्ण ऐश्वर्य का जीवन जीने की इच्छा रखिए । जीवन मे ऊंचे लक्ष्य बनाइए, बड़े सपने देखिए । ईश्वर कोई दीन-हीन, बेबस-लाचार नहीं है, वह परम वैभव का स्वामी है, सकल ब्रह्मांड का रचयिता है, और आप उसकी संतान हो । “उसकी बनाई यह समस्त सृष्टि आपकी संपत्ति है ।” यह बात जिस दिन वास्तव में हृदय में उतर गई.. कोई भी अभाव नहीं रह सकता । ईश्वर शब्द से ही ऐश्वर्य शब्द का निर्माण हुआ है । सभी भोगों का भरपूर आनंद, सभी इंद्रियों की तृप्ति , सभी कामनाओं की पूर्ति के हम सर्वोच्च अधिकारी हैं… क्योंकि हम मनुष्य है
और भगवान को हमारे या किसी के मानने या मानने से फ़र्क़ नहीं पड़ता, वह तो एक सत्ता है जो सदैव विद्यमान है । चलो, मैं सूर्य को नहीं मानता… तो क्या इस भीषण गर्मी से बच जाऊंगा । अब नास्तिक या आस्तिक होना सभी का निजी अधिकार है ।
यह धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, जप-तप, दान-पुण्य सबके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता । ऐसा संभव भी नहीं और सृष्टि के लिए उचित भी नहीं… ऐसा क्यों है …?? यह आगे बताएँगे…
कल्याणमस्तु !!
आचार्य ओजस्वी
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